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तप का क्या अर्थ है?

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तप  

तप का क्या अर्थ है? 

अधिकतर लोग समझते है कि अपने चारों ओर आग जलाई एवं बैठ गये,तप करने अर्थात धूनी लगाकर बैठ जाना ही तप है। ठीक है यह भी एक प्रकार का तप ही। वास्तव में कोई किसी किसी भी प्रकार की संयम साधना ही तप है। एक समय भोजन करना, मिही निश्चित समय के लिए मौन साधना, किसी मंत्र की जप साधना, चमड़े के जूते नहीं पहनना, नंगे पैर रहना आदि कितने ही प्रकार की संयम बरतने की आदत सभी तप की श्रेणी में ही हैं। एक विद्यार्थी कक्षा 12 तक की शिक्षा जीवन के प्रारम्भिक 12 बर्षों में पूर्ण करता है। यह भी 12 वर्षीय तप साधना की तो है। इसके बाद ही कोई विद्यार्थी उच्च शिक्षा का अधिकारी बनता है। अतः परि उच्चस्तरीय साधना करनी है तो प्रारम्भिक तप साधना तो करनी ही पड़ेगी । 

हमारे प्राचीन शास्त्रों में तप साधना के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। श्री रामचरित मानस में बाबा तुलसी दास ने कहा है - तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा' अर्थात तप सुख देने वाला और दुख-दोष कानाश करने वाला है। 

तुलसी दास जी आगे कहते हैं - 

तप बलरचर प्रपंचु विधाता । 
तप बल विष्णु सकल जग त्राता । 

तपबल संभु करीह संहारा।  

तपबल सेषु घरटं मोहमारा ।। 

तप अधार सब सृष्टि भवानी। 

काहिँ जाइतप अस जियँ जानी।। 

अर्थात तप बल से ही  ब्रह्मा  संसार की रचना  करते है और तप बल से ही विष्णु सारे जगत का  पालन करते हैं| तप के बल से ही शम्भु जगत का संहार करते हैं और तप के बल से ही शेषनाग जी अपने सिर पर पृथ्वी का भार धारण करते हैं। हे भवानी। सारी पृथ्वी तप के आधार पर ही है । अतः ऐसा जी में जानकर तू जाकर तप कर ।। 

सर्व विदित है कि पार्वती के कठोर तप से ही प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अपनी अर्द्धांगिनी बनाया । 

सती सावित्री की कहानी भी हम सबने सुनी है। जब सावित्री को पता चला कि उसके पति की आयु मात्र एक वर्ष शेष है तो उसने अपनी तप साधना प्रारंभ कर दी। एक वर्ष तक कठिन तप किया। यह उन्होंने एक वर्ष की गायत्री साधना की। साधनोपरान्त एक वर्ष पूरा होने पर जब सत्यवान लकड़ी काटने जंगल में गया तो सावित्री भी उनके साथ चली गई थी। विदित हो कि सत्यवान के माता पिता अन्धे थे तथा बहुत गरीब थे| हालांकि वे पहले राजा थे परन्तु शत्रुओं ने उनका राज्य छीन लिया था। जंगल में सत्यवान पेड़ पर से लकड़ी काट रहा था, अचानक उसे सिर दर्द हुआ और थोड़ी देर बाद ही यम के दूत सत्यवान की आत्मा को लेने आ गये परन्तु सावित्री के तपोबल से वे वहाँ से लौट गये। तब स्वयं यमराज आए एवं सत्यवान की आत्मा को लेकर चल दिए। पीछे पीछे सावित्री चल दी तो यमराज ने कहा पुत्री तुम वापस जाओ। मेरे कार्य में दखल मत दो। सावित्री नहीं मानी तो उन्होने कहा कि सावित्री तुमने एक वर्ष की कठिन साधन की है अतः में प्रसन्न हूँ तुम मुझसे कोई एक वर मांगों। 

सावित्री बोली कि यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसा वरदान  दो कि मेरे सास ससुर चांदी की कटोरी व सोने की चम्मच से अपने पोते को अन्नप्राशन करते हुए निहारें । यमराज बोले “तथास्तु“। 

उसके बाद भी जब सावित्री पीछे नहीं लौटी तो उन्होंने पूछा अब क्या है? सावित्री बोली कि मेरे पति सत्यवान को तो आप ले जा रहे हैं, मेरे सास ससुर को पोता कैसे प्राप्त होगा ? यमराज सारी बात समझ गये बोले तेरी है तप साधना से ही तुझे इतनी विवेकशील बुद्धि प्राप्त हुई है। में प्रसन्न हूँ, जाओ तुम्हारे सास ससुर को पुनः राज्य प्राप्त होगा और तुम पुत्रवती होगी। यही है तप  साधना की शक्ति । 

हमें मनुष्यता का स्वरूप ही तप से आता है, तप वह विशाल कुन्जी है, जो हृदय के हिमालय से प्रोद्‌भूत हो महान कल्याणकारी कहलाती है। तप ही महामानव बनने की यात्रा है। तप वास्तव में सामर्थ्य विकसित करने की कला है। तप का एक आशय इन्द्रियों की सदजागृति  से है तो दूसरा मन की विचलन को मारकर उसे आत्म कल्याण न आत्म निर्माण की ओर प्रेरित करना है । तप से जीवन प्रफुल्लित हो उठता है तथा सद्‌भावनाएं जाग उठती है, चरित्र निर्मल होकर मनुष्य को उसके सौभाग्य का पथ प्रदान करता है। तप ही वास्तव में जीवन को अमरता एवं ऊँचाई प्राप्त कराने की कुन्जी है। अपने आत्मिक सौन्दर्य को निखारने की कला ही तप है। तप का अर्थ निरंतर उस सत्प्रयोजन के लिए के आत्माहुति देना है जो कि मनुष्य को चरित्र से महान एवं अंतरात्मा से सशक्त बनाए । 

हमें भी अपने जीवन में तपःशील बनना चाहिए। 

इसके लिए हमें संयम पूर्वक जीवन यापन करना होगा। संयम अर्थात इन्द्रिय संयम, समय संयम, विचार संयम एवं अर्थ संयम का अनुपालन । अभ्यक्ष वस्तुओं का  परित्याग, ब्रह्मचर्य व्रत, एक पत्नी। एक पुरुष व्रत, समय की सही सदुपयोग अर्थात समय पालन करना, शब्दों का सही उपयोग अर्थात वाणी पर संयम अर्थात आवश्यक वचन ही बोले जाएं एवं दूसरों पर अनावश्यक अविश्वास न किया जाये । अर्थ का संयम यानी सोचविचार कर धन खर्च करना चाहिए। पैसा कमा तो सभी लेते हैं लेकिन उसे खर्च करने की कला आना बहुत आवश्यक है । प्रकृति के साथ जीना, मानव मात्र को एक समान समझना, नारी का सम्मान करना आदि गुणों का अनुपालन करना ही तपःशील जीवन है। तप ही जीवन का मूल सूत्र है, यदि इसे समझ लिए लिया जाये, व्यवहार – परिवर्तन किया जाये, जीवन को उत्कृष्ट बनाया जाये, चरित्र एवं चिन्तन को परिष्कृत किया जा सके तभी तप का प्रयोजन सफल सिद्ध समझना चाहिए । अतः तुम तपस्वी बनो, निरहं‌कारी तथा आत्मप्रेरणा से चालित कहलाओ । फिर देखो संसार कैसे तुम्हारी कीर्तिगाथा को स्वीकार करता है, कैसे अभिनव निर्माण की ओर तुम्हारे कदम बढ़ते हैं, , कैसे तुम धरती को वह सुख सौभाग्य प्रदान करते है हो जो उसका नैसर्गिक अधिकार है।  

!! ॐ शान्तिः ॥ 

हीरालाल शर्मा
सेवा निवृत प्रधानाचार्य
9411086083